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कविता

स्मृति : एक

मंगलेश डबराल


खिड़की की सलाखों से बाहर आती हुई लालटेन की रोशनी
पीले फूलों जैसी
हवा में हारमोनियम से उठते प्राचीन स्वर
छोटे-छोटे बारीक बादलों की तरह चमकते हुए
शाम एक गुमसुम बच्ची की तरह छज्जे पर आकर बैठ  गई है
जंगल से घास-लकड़ी लेकर आती औरतें आँगन से गुजरती हुईं
अपने नंगे पैरों की थाप छोड़ देती हैं

इस बीच बहुत सा समय बीत गया
कई बारिशें हुईं और सूख गईं
बार-बार बर्फ गिरी और पिघल गई
पत्थर अपनी जगह से खिसक कर कहीं और चले गए
वे पेड़ जो आँगन में फल देते थे और ज्यादा ऊँचाइयों पर पहुँच गए
लोग भी कूच कर गए नई शरणगाहों की ओर
अपने घरों के किवाड़ बंद करते हुए

एक मिटे हुए दृश्य के भीतर से तब भी आती रहती है
पीले फूलों जैसी लालटेन की रोशनी
एक हारमोनियम के बादलों जैसे उठते हुए स्वर
और आँगन में जंगल से घास-लकड़ी लाती
स्त्रियों के पैरों की थाप।


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